हिंदी दिवस की बधाई। हिंदी माथे की बिंदी। नई वाली हिंदी। मातृभाषा पर्व के आचमन की बेला आ गयी है। दिन – सप्ताह और माह निकल जायेंगे और अगले बरस हम फिर जुटेंगे हिंदी दिवस को मनाने । ये वाला कुछ खास है क्योंकि डिजिटल है। शोर भी ज्यादा होगा। दिखेगा भी ज्यादा और फैलाया भी जायेगा। दिखाई देने का सुख से हिंदी को क्यों वंचित किया जाय हां दिखने और महसूस होने में बड़ा फर्क है। “अंतर्मन का अहसास, मातृ भाषा के साथ। इस बार हिंदी (नई वाली) दिवस डिजिटल एहसास के साथ। जिसे आप संजो का रख सकते है अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए।” जिंगल मारक है बंधू और गोली की तरह असर कर सकती है नई पीढ़ी पर। असर हो न हो तब भी चलेगा लेकिन किताबें न हो “इ हमका मंजूर नाहीं है “।
किसी अकादमिक अध्यापक कमरे और सरकारी खरीद का हिस्सा बनने से कहीं ज्यादा जरुरी है एक अच्छी किताब का बिस्तर के सिरहाने पर रखा होना। उन लोगों तक पहुँच पाना जिनमें भाषा साँस लेती है और धड़कती है। जिंदगी को थोड़ा बदलने, खिड़कियों को थोड़ा खोलने और दुनिया को थोड़ा बेहतर बनाने के लिए किताबों का होना जरुरी है।
शायद इससे समाज को थोड़ा विस्तार मिल सके जो जरुरी है और जरुरत भी। हमारे और आपके लिए। हमारे आने वाले कल के लिए। अपनी ही संतानो को बताने की जद्दोजद बेहद दुखदायी है की किताबों का पास होना क्या सुख देता है। नई पीढ़ी को कौन और कैसे समझाए की जनसंचार का स्पंदन क्या होता है।
नागरिक जीवन का आरंभ बेशक नई कविता में देखने को मिलता है। लेकिन एक उद्योगिक जीवन की प्रतिछवि भी साथ साथ बनती चली जाती है। विविधताओं से भरा भारतीय जन जीवन की अंतरकथा यहीं तो प्रगट होती है। “जिंदगी बुरादा तो बारूद बनेगी ही ” कविता तभी तो जन्म लेगी। जीवन ही तो कविता का सबसे मार्मिक अंश है। इसे आत्मसंघर्ष से अर्जित किया जाता है। आत्मसंघर्ष से विमुख कविता और जीवन को बयाँ करना कठिन होता है।
कविता केवल बाहर नहीं आंकती बल्कि भीतर भी निरंतर चलती रहती है। एक शांत नदी की तरह जिसके ऊपरी तल पर फैले बालू के महीन कण सूर्य किरणों से चमकते हो और पथिक को आकर्षित करते हो। यह मृग मरीचिका तो नहीं हो सकता क्योंकि सरस्वती (नदी )की तरह निरंजना की धारा भी हजारों वर्षों से अविरल बह रही है। इतिहास और भूगोल कम है लेकिन मन की पड़ताल ज्यादा है।
आम की अमराइयों से, पर्वत और तराई से गुजरते हुए किसे काफिले का ठहर जाना क्या होता है यह कोई चरवाहा खूब समझता है जिसकी भेड़े अभी भी हरी पत्तियों की तलाश में मैदानों और चट्टानों के नुकीले सिरों पर ढूंढती रही है कुछ हरी पत्तियाँ। और काफिले के आ जाने से जो बेअदबी और बेकरारी का जो शोर होता है वह उनसे उनका हक़ छीन लेता है जो उनका था या होने वाला था अगले ही पल।